Monday 24 November 2014

इस पार - उस पार

आज फिर अकेले से रह गये हम
ना जाने रोशनी हैं खोई या खो गये हैं हम
सूनी अखियाँ टकटकी लगाए हैं उस चौखट पर
जिसके उस पार चल दिए तुम, इस पार रह गये हम
आज फिर अकेले से रह गये हम

क्यूँ ढूँढती हैं निगाहें राहों में मंज़िलों के निशान,
हर ओर बिखरी यादें हैं पर उन यादों का चेहरा हैं कहाँ,
सुनहेरा था कभी अब लगे काला हैं वो आसमाँ,
इस मंज़र को जो करे बयान , अल्फ़ाज़ वो छुपे हैं कहाँ
गुफ्तगू की आस हैं पर खामोश रह गये हम
उस पार चल दिए तुम, इस पार रह गये हम
आज फिर अकेले से रह गये हम

हथेली की इन लकीरों में सफ़र की छाप आती हैं नज़र,
जब धूप तले रखे थे कदम हमने जलती ज़मीनो पर,
वो दौर था कुछ और जब सदके में झुका कभी था सर,
अब ज़रा भर इनायत की आस में भटक रही हैं राहगुज़र
हमसफर की चाह में बंजारे बन गये हम,
उस पार चल दिए तुम, इस पार रह गये हम

आज फिर अकेले से रह गये हम

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