Saturday 21 April 2012

ना जाने आज क्यूँ फिर से जीने को जी करता है,


ना जाने आज क्यूँ फिर से जीने को जी करता है,
उस खोई हँसी को फिर से हँसने को जी करता है..
दुनिया के तानो ने जो था छीना मुझसे,
उस विश्वास को फिर से पाने को जी करता है..

चुप हो गयी मैं उस शोर में जाने कहाँ,
उन अल्फासों में..उन साज़ों में,
गुम हुआ कहीं ज़िंदगी का कारवाँ,
आज फिर उस कारवाँ की राह लौट जाने को जी करता है
ना जाने आज क्यूँ फिर से जीने को जी करता है..

था मुझे डर उन सपनों के टूट जाने का,
अपनी मंज़िल का..अपनी तकदीर का
रेत जैसे लहरों संग बह जाने का,
आज बेफ़िक्र रेत समेट कर घरोंदा बनाने को जी करता हैं
ना जाने आज क्यूँ फिर से जीने को जी करता है..

चलते रही मैं भी इस भीड़ के संग मे,
यूँही रुखते हुए, यूँही तकते हुए,
परों को ना खोने का एहसास लिए मन मे,
आज उन पखों को फैला कर बस उड़ने को जी करता हैं
ना जाने आज क्यूँ फिर से जीने को जी करता है..