Monday 1 September 2014

ज़िंदगी

नींद ना जाने क्यों आज आँखों को अलविदा कह गई,
जाने क्यूँ याद आई ज़िंदगी में जो कमी रह गई 

शोहरत के मुकाम पर जो मिला सरहाया उसने मेरे हासिल-ए-बुलंदी को,
कैसे दिखायें उन्हें वो कसक जो दिल की दिल में दबी रह गई

क्या अदावतें, रंजिशें थी वो जिसने तालुकात को कुछ यूँ कहा अलविदा,
कि रेत पर लिखी वो अनसुनी ग़ज़ल लहरों संग बह गई

ज़िंदगी से मोहब्बत हमें भी थी, पर ना जाने कैसी शाम थी वो,
की धुप-छाँव में खेलती ये ज़िंदगी अँधेरे में बिखर कर रह गई

ख्वाबों से भरे इस चेहरे को हकीकत ने आइना कुछ ऐसा दिखाया कि,
महसूस हुआ कैसी तलाश-ए-जन्नत की आरज़ू में मैं बटी रह गई

उन निग़ाहों ने आने वाले कल के गम को बड़ी आसानी से पड़ लिया,
पर आज की बेबसी को ना जाने क्यूँ नज़रअंदाज़ कर गई

अलहदा हुई उन ख्वाइशों को आज जब दिल ने दोहराया,
सीली-सीली दिवारों के जैसे मेरी पलकों पे थोड़ी नमी रह गई  

नींद ना जाने क्यों आज आँखों को अलविदा कह गई,
जाने क्यूँ याद आई ज़िंदगी में जो कमी रह गई 

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